जैसा भोजन है वैसा ही मन है!!! भगवत गीता, सात्विक भोजन का महत्व।




हमारे भोजन का हम पर बहुत प्रभाव पड़ता है। ये पुरानी कहावतें बिल्कुल सच है-जैसा आहार वैसा विचार और जैसा अन्न वैसा मन। भोजन तीन प्रकार के होते है- राजसिक, तामसिक और सात्विक। तीनों का अपना-अपना, अलग-अलग प्रभाव मानव जीवन पर पड़ता है।

जैसा भोजन है वैसा ही मन है,
जैसा मन है, वैसे ही हमारे विचार है,
जैसे विचार हैं, वैसे ही कर्म हैं,
जैसे कर्म हैं वैसे ही परिणाम हैं।
इसलिये परिणाम भोजन पर निर्भर है जो तुम खाते हो। सप्रयास और बिना गलती किये तुम्हें अपने खाने की आदतों में अनुशासन का पालन करना चाहिये। भोजन,  विचार और ईश्वर को इस क्रम में देखना चाहिये। जैसा तुम्हारा खाना होगा वैसा ही तुम्हारा  विचार , जैसी दशा तुम्हारे विचार की होगी वैसा ही तुम में ईश्वर का प्रकटीकरण होता है।
तुम्हें बहुत अधिक नहीं खाना चाहिये। तुम्हें खाना जीने के लिये लेना चाहिये कि जीना खाने के लिये। अत्यधिक मात्रा में भोजन लेना तामसिक गुण है। यदि तुम दिन में एक बार खाते हो, तुम योगी हो, यदि तुम दिन में दो बार खाते हो, तुम रोगी हो। यदि तुम सात्विक, मुलायम और सन्तुलित भोजन मध्यम मात्रा में लेते हो, तुम सात्विक, मन विकसित करते हो और यदि तुम राजसिक, मसालेदार, गरम भोजन लोगे तो तुम में राजसिक गुण, भावुकता, उत्तेजित मन आदि होगा और यदि तुम तामसिक भोजन, मांस शराब आदि लेते हो, तुम में तामसिक या पशुजनित गुण, आलस्य, निष्क्रिय एवं निश्चेष्ट मन होगा। अत: यह भोजन है जो मन को आकार देता है और इस पर ही तुम्हारे कर्म निर्भर है जो तुम्हें उसी प्रकार के परिणाम देते हैं।
तुम्हेंपात्र शुद्धी´´ उपयोग में आने वाले बड़े छोटे बर्तनों की स्वच्छता, “पदार्थ शुद्धी´´ खाद्य पदार्थो की शुद्धता, “पाक शुद्धी´´ खाना पकाने का शुद्ध तरीका औरभाव शुद्धी´´ उस व्यक्ति के विचारों की शुद्धता जो भोजन बना रहा है, पर भी ध्यान देना चाहिए। तुम्हें कहीं भी दिया गया भोजन नहीं खाना चाहिये।
भोजन जीवन का आधार है। आधार हमेशा मजबूत होना चाहिए कि मजबूरी, लापरवाही, अज्ञान अथवा अविवेक पूर्ण आचरण का भोजन कितना ही संतुलित, पौष्टिक, सुपाच्य, स्वास्थ्यवर्धक क्यों हों, परन्तु यदि खिलानें वाले का व्यवहार अच्छा हों, उपेक्षापूर्ण हों, वाणी में व्यंग और भाषा में अपमानजनक शब्दावली हों तो ऐसा भोजन भी अपेक्षित लाभ नहीं पहुँचा सकता। भोजन को प्रसाद की भांति खाना चाहिए। खाया हुआ भोजन तीन भागों में विभक्त हो जाता है। स्थूल भाग मल बनता है, पोष्टिक तत्त्वों से शरीर के अवयवों का निर्माण होता है। अन्न के भावांश से मन बनता है। पेट तो भोजन से भर सकता है, परन्तु मन तो भोजन बनाने और खिलाने वालों के भावों से ही भरता है। इसी कारण होटल के स्वादिष्ट खाने से पेट तो भर सकता है, परन्तु मन नहीं।
आधुनिक खान-पान की एक और विसंगति है कि जब शरीर श्रम करता है, तब उसे कम आहार दिया जाता है परन्तु जब वह विश्राम की अवस्था में होता है, तब उसे अधिक मात्रा में कैलोरीयुक्त आहार दिया जाता है। जैसे दिन का समय जो मेहनत परिश्रम का होता है तब तो हल्का भोजन, नाश्ता, चाय, काफी, ठंड़े पेय आदि कम कैलोरी वाले आहार करता है और रात्रि में जो विश्राम का समय होता है, प्रायः अधिकांश व्यक्ति गरिष्ठ भोजन करते हैं, जो स्वास्थ्य के मूल सिद्धान्तों के विपरीत होता है।
स्वाद के वशीभूत हो हम कभी-कभी अनावश्यक हानिकारक वस्तुएँ खाते हुए भी संकोच नहीं करते। भूख एवं आवश्यकता से ज्यादा भोजन कर लेते हैं। जीभ के स्वादवश अधिक आहार हो जाता है तो कभी अतिव्यस्तता के कारण भोजन ही छूट जाता है। अधिक खाना और खाना दोनों स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं। तामसिक भोजन करने वाला तामसिक वृत्तियों वाला होता है। तामसिक व्यक्ति शरीर के लिए जीता है। राजसिक भोजन से मन और बुद्धि चंचल होती है। राजसिक प्रवृत्ति वाले अत्यधिक महत्वकांक्षी होते हैं। अतः उन्हें उत्तेजना पैदा करने वाला भोजन अच्छा लगता है। सात्विक भोजन ही संतुलित होने से सर्व श्रेष्ठ होता है। भोजन के सम्बन्ध में हमारी प्राथमिकता क्या हो? जिस प्रकार बिना कपड़े पहने आभूषण पहिनने वालों पर दुनियाँ हँसती है। ठीक उसी प्रकार शरीर की पौष्टिकता के नाम पर मन, भाव और आत्मा को विकारी बनाने वाला भोजन अदूरदर्शितापूर्ण आचरण ही होता है।
अतः प्रत्येक स्वास्थ्य प्रेमी सजग व्यक्ति को भोजन कब, क्यों, कितना, कहाँ, कैसा करना चाहिए और कब, कहाँ, कैसा, कितना भोजन नहीं करना चाहिए का विवेक रखना चाहिए।


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